ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग १५-१९ सारांश दिवस १०

ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग १५-१९ सारांश दिवस १०

 

रामायण

ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग १५-१९  सारांश दिवस १० 

१) वसिष्ठ : जिस पुरुष को सन्तोष प्राप्त हुआ वह परमानन्दित होकर त्रिलोकी के ऐश्वर्य को तृण की नाईं तुच्छ जानता है

२) वसिष्ठ : सन्तोष उसी का नाम है जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा न करे और प्राप्त भी हो तो इष्ट अनिष्ट में राग-द्वेष न करे

३) वसिष्ठ : जो सन्तोष से रहित है उसके हृदयरूपी वन में सदा दुःख और चिन्तारूपी फूल फल उत्पन्न होते है

४) वसिष्ठ :  इच्छारूपी धूल सर्वदा उड़ती रहती है सो सन्तोषरूपी वर्षा से शान्त हो जाती है, इस कारण संतोषवान् निर्मल है

५) वसिष्ठ : जितने दान और तीर्थादिक साधन हैं उनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती आत्मपद की प्राप्ति साधुसंग से ही होती है

६) वसिष्ठ : सन्त की संगति से हृदय में ज्ञानरूपी दीपक जलता है जिससे अज्ञान-रूपी तम नष्ट हो जाता है और बड़े बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त होता है

७) वसिष्ठ : सन्तजन संसारसमुद्र के पार उतारने में पुल के समान हैं और आपदारूपी बेलि को जड़ समेत नष्ट करनेवाले हैं 

८) वसिष्ठ : जिसने सत्संगरूपी गंगा का स्नान किया है उसको फिर तप दान आदिक साधनों से प्रयोजन नहीं रहता 

९) वसिष्ठ :  मनरूपी वन में वासनारूपी नदी चलती है उसके शुभ अशुभ दो किनारे हैं । पुरुषार्थ करना यह है कि अशुभ की ओर से मन को रोक के शुभ की ओर चलाना 

१०) वसिष्ठ : जिस पुरुष ने कवच पहना हो उसको बाण नहीं बेध सकते वैसे ही ज्ञानवान् पुरुष को संसार के रागद्वेष नहीं बेध सकते 

११) वसिष्ठ : आत्मपद पाने के निमित्त अवश्यमेव अभ्यास चाहिये । जब शम, विचार, संतोष और सन्त समागम से बोध को प्राप्त हो तब परमपद को पाता है 

१२) वसिष्ठ : जब सत्संग करके मनुष्य शुद्धबुध्दि करे तब आत्मपद पाने को समर्थ होता है 

१३) वसिष्ठ : प्रथम सत्संग यह है कि जिसकी चेष्टा शास्त्र के अनुसार हो उसका संग करे और उसके गुणों को हृदय में धरे । फिर महापुरुषों के शम और संतोषादि गुणों का आश्रय करे । शम संतोषादिक से ज्ञान उपजता है

Ganesh K Avasthi
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