ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग १-५ सारांश दिवस ५

ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग १-५ सारांश दिवस ५

श्रीयोगवशिष्ठ महारामायण द्वितीय मुमुक्षु प्रकरण

 ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम्  मुमुक्षु प्रकरण  सर्ग १-५ सारांश दिवस ५ 

१) विश्वामित्र : भोग की इच्छा सबको दीन करती है इसी का नाम बन्धन है और भोग की बासना का क्षय करना ही मोक्ष है

२) विश्वामित्र :  जब तक आत्मानंद का प्रकाश नहीं होता तब तक विषय की वासना दूर नहीं होती और जब आत्मानन्द प्राप्त होता है तब विषय वासना कोई नहीं रहती 

३)  विश्वामित्र : जिस में शिष्यभाव और बिरक्तता न हो ऐसे अपात्र मूर्ख को उपदेश करना व्यर्थ है, कदाचित विरक्त हो और शिष्यभावना नहीं तो भी उपदेश न करना चाहिये 

४) वसिष्ठ : जिव को नाना प्रकार की वासना के अनुसार अपनी अपनी सृष्टि भास आती है

५) वसिष्ठ : एक अद्वैत परमात्मा तत्त्व अपने आप में स्थित है उसमें द्वैतभ्रम अविद्या से भासता है

६) वसिष्ठ : जो कुछ सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से सिद्ध होता है । पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता । लोग जो कहते हैं कि दैव करेगा सो होगा यह मूर्खता है 

७) वसिष्ठ : सन्तजन और सत्य शास्त्र के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ (प्रयत्न) है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है

८) वसिष्ठ : चित्त जो कुछ वाच्छा करता है और शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ नहीं करता सो सुख न पावेगाक्योंकि उसकी उन्मत्त चेष्टा है 

९) वसिष्ठ : पौरुष भी दो प्रकार का है--एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्रविरुद्ध । जो शास्त्र त्याग करके अपनी इच्छा के अनुसार विचरता है सो सिद्धता न पावेगा और जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ करेगा वह सिद्धता को प्राप्त होगाकदाचित दुःख न पावेगा 

१०) वसिष्ठ : जिसके पूर्व के संस्कार बली होते हैं उसी की जय होती है और विद्यमान पुरुषार्थ बली होता है तब उसको जीत लेता है 

११) वसिष्ठ : जैसे एक पुरुष के दो पुत्र हैं तो वह उन दोनों को लड़ाता है पर दोनों में से जो बली होता है उसी की जय होती है, परन्तु दोनों उसी के हैं वैसे ही दोनों कर्म इसके हैं जिसका पूर्व का संस्कार बली होता है उसी की जय होती है

१२) वसिष्ठ : यह जीव जो सत्संग करता है और सत्‌शास्त्र को भी विचारता है पर फिर भी पक्षी के समान जो संसारवृक्ष की ओर उड़ता है तो पूर्व का संस्कार बली है उससे स्थिर नहीं हो सकता । ऐसा जानकर पुरुष प्रयत्न का त्याग न करे 

१३) वसिष्ठ : पूर्व का संस्कार बली भी हो । और सत्संग करे और सत्‌शास्त्र भी दृढ़ अभ्यास हो तो पूर्व के संस्कार को पुरुष प्रयत्न से जीत लेता है 

१४) वसिष्ठ : ज्ञानवान् जो सन्त हैं और सत्‌शास्त्र जो ब्रह्मविद्या है उसके अनुसार प्रयत्न करने का नाम पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ से पाने योग्य आत्मा है जिससे संसारसमुद्र से पार होता है

१५) वसिष्ठ : जो कुछ सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है- दूसरा कोई दैव नहीं । जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ को त्याग कर कहता है कि जो कुछ करेगा सो देव करेगा वह मनुष्य नहीं गर्दभ है उसका संग करना दुःख का कारण है 

१६) वसिष्ठ : मनुष्य को प्रथम तो यह करना चाहिये कि अपने वर्णाश्रम के शुभ आचारों को ग्रहण करे और अशुभ का त्याग करे । फिर संतो का संग और सत्‌शास्त्रों का विचारना और उनको विचारकर अपने गुण दोष को भी विचार करना चाहिये कि दिन और रात्रि में क्या शुभ और अशुभ किया है । आगे फिर गुण और दोषों का भी साक्षीभूत होकर जो संतोष, धैर्य, विराग विचार और अभ्यास आदि गुण है उनको बढ़ावे और जो दोष हों उनका त्याग करे 

१७) वसिष्ठ : जैसे वन का मृग घास, तृण और पत्तों को रसीला जानके खाता है वैसे ही स्त्री, पुत्र, बान्धव, धनादि में मग्न होना चाहिये 

१८) वसिष्ठ : इनसे विरक्त होना और दाँतों से दाँतों को चबाकर संसारसमुद्र के पार होने का यत्न करना चाहिये । जैसे केसरी सिंह बल करके पिंजरे में से निकल जाता है वैसे ही निकल जाने का नाम पुरुषार्थ है 

१९) वसिष्ठ : जिस पुरुष ने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है और दैव के आश्रय हो यह समझता है कि हमारा दैव कल्याण करेगा वह कभी सिद्ध नहीं होगा जैसे पत्थर से तेल निकालना चाहे तो नहीं निकलता वैसे ही उसका कल्याण दैव से न होगा 

२०) वसिष्ठ : जिसने अपना पुरुषार्थ त्यागा है उसको सुन्दर कान्ति और लक्ष्मी त्याग जाती है 

२१) वसिष्ठ : पुरुषार्थ यह है कि सन्त का संग और सत्‌शास्त्रों का विचार करके उनके अनुसार विचरे जो उनको त्याग के अपनी इच्छा के अनुसार विचरते हैं सो सुख और सिद्धता न पावेंगे और जो शास्त्र के अनुसार विचरते हैं वह इस लोक और परलोक में सुख और सिद्धता पावेंगे 

२२) वसिष्ठ :  पुरुषार्थ वही है कि सन्तजनों का संग करना और बोधरुपी कमल और विचाररूपी स्याही से सत्‌शास्त्रों के अर्थ हृदयरूपी पत्र पर लिखना । जब ऐसे पुरुषार्थ करके लिखोगे तब संसाररूपी जाल में न गिरोगे 

२३) वसिष्ठ : जो संतो की संगति करता है और सत्‌शास्त्र भी विचारता है पर उनके अर्थ में पुरुषार्थ नहीं करता उसको सिद्धता नहीं प्राप्त होती । जैसे कोई अमृत के निकट बैठा हो तो पान किये बिना अमर नहीं होता वैसे ही अभ्यास किये बिना अमर नहीं होता और सिद्धता भी प्राप्त नहीं होती 

२४) वसिष्ठ : अज्ञानी जीव अपना व्यर्थ खोते हैं । जब बालक होते हैं तब मूढ़ अवस्था में लीन रहते हैं युवावस्था में विकार को सेवते हैं और जरा में जर्जरीभूत होते हैं । इसी प्रकार जीवन व्यर्थ खोते हैं और जो अपना पुरुषार्थ त्याग करके दैव का आश्रय लेते हैं सो अपने हन्ता होते हैं वह सुख न पावेंगे

२५) वसिष्ठ : जो पुरुष व्यवहार और परमार्थ में आलसी होके और परमार्थ को त्यागके मूढ़ हो रहे हैं सो दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त हुए हैं । यह मैंने विचार करके देखा है । इससे तुम पुरुषार्थ का आश्रय करो और सत्संग और सत्‌शास्त्ररूपी आदर्श के द्वारा अपने गुण और दोष को देख के दोष का त्याग करो और शास्त्रों के सिद्धान्तों पर अभ्यास करो । जब दृढ़ अभ्यास करोगे तब शीघ्र ही आनन्दवान् होगे


Ganesh K Avasthi
Blog Admin





  

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