ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् वैराग्य प्रकरण सर्ग ८ - १३ सारांश दिवस २
१) श्रीराम : लक्ष्मी देखने मात्र ही सुन्दर है । जब इसकी प्राप्ति होती है तब सद्गुणों का नाश कर देती है ।
२) श्रीराम : जो शूर होकर अपने मुख से अपनी बड़ाई न करे सो दुर्लभ है और सामर्थ्यवान् हो किसी की अवज्ञा न करे सब में समबुद्धि राखे सो भी दुर्लभ है वैसे ही लक्ष्मीवान् होकर शुभ गुण हो सो भी दुर्लभ है ।
३) श्रीराम : जो लक्ष्मी पाकर अमर होना चाहे उसे अति मूर्ख जानना और लक्ष्मी पाकर जो भोग की इच्छा करता है वह महा आपदा का पात्र है
४) श्रीराम : जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है । जैसे और भार होता है वैसे ही पड़नेका भी भार है और पड़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है
५) श्रीराम : आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है । जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है ।
६) श्रीराम : जिस पुरुष ने मनुष्य शरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्महत्यारा है ।
७) श्रीराम : अहंकार अज्ञान से उदय हुआ है । यह महादुष्ट है और यही परम शत्रु है । उसने मुझको दबा डाला है पर मिथ्या है और सब दुःखों की खानि है । जब तक अहंकार है तब तक पीड़ा की उत्पत्ति का अभाव कदाचित् नहीं होता ।
८) श्रीराम : जितने दुःख हैं उनका बीज अहंकार है । जब इसका नाश हो तब कल्याण हो ।
९) श्रीराम : जैसे मोर का पंख पवन में नहीं ठहरता वैसे ही यह चित्त सर्वदा भटका फिरता है पर कुछ लाभ नहीं होता । जैसे श्वान द्वार द्वार पर भटकता फिरता है वैसे ही यह चित्त पदार्थों के पाने के निमित्त भटकता फिरता है पर प्राप्त कुछ नहीं होता और जो कुछ प्राप्त होता है उससे तृप्त नहीं होता बल्कि अतःकरण में तृष्णा बनी रहती है ।
१०) श्रीराम : जैसे पिंजरे में आया सिंह पिंजरे ही में फिरता है वैसे ही वासना में आया चित्त स्थिर नहीं होता ।
११) श्रीराम : आत्मा के ज्ञान बिना मैं मृतक समान हूँ ।
१२) श्रीराम : भोग को सुखरूप जान कर चित्त दौड़ता है पर वह भोग दुःख का कारण है । जैसे तृण से आच्छादित खाई को देखकर मूर्ख मृग खाने दौड़ता है तो खाईं में गिरकर दुःख पाता है वैसे ही चित्तरूपी मृग भोग को सुखकर जानकर भोगने लगता है तब तृष्णा रूपी खाईं में गिर पड़ता है और जन्म जन्मान्तर में दुख भोगता रहता है
१३) श्रीराम : जैसे पवन का वेग आता और जाता है वैसे ही यह शरीर भी आता और जाता है, इससे प्रीति करना दुःख का कारण है ।
१४) श्रीराम : मान-अपमान, जरा-मृत्यु, दम्भ-भ्रान्ति, मोह-शोक आदि सर्व विकार देह के संयोग से होते हैं जिनको देह में अभिमान है उनको धिक्कार है और सब आपदा भी उन्ही को प्राप्त होती हैं
१५) श्रीराम : जिसको देह का अभिमान नहीं है वह मनुष्यों में उत्तम और वन्दना करने के योग्य है ।
१६) श्रीराम : जो शरीर की आस्था करके अहंकार करते हैं और जगत् के पदार्थों के निमित्त यत्न करते हैं वे महामूर्ख हैं । जैसे स्वप्न मिथ्या है वैसे ही यह जगत् मिथ्या है । जो उसको सत्य जानता है वह अपने बन्धन के निमित्त यत्न करता है ।
१७) श्रीराम : पतंग अपने नाश के निमित्त दीपक की इच्छा करता है वैसे ही अज्ञानी को अपने देह का अभिमान और भोग की इच्छा अपने ही नाश के निमित्त है ।
दिनांक : ३१/०७/२०२३
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