ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् वैराग्य प्रकरण सर्ग २५-२८ सारांश दिवस ४
१) श्रीराम : जब जरावस्था आती है तब जैसे पुरातन वृक्ष के पत्र पवन से हिलते हैं वैसे ही अंग हिलते हैं और तृष्णा बढ़ जाती है
२) श्रीराम : जैसे नीम का वृक्ष ज्यों-ज्यों वृद्ध होता है त्यों-त्यों कटुता बढ़ती है तैसे ही तृष्णा बढ़ती है
३) श्रीराम : अज्ञानी का चित्त भोग का त्याग कदाचित नहीं करता
४) श्रीराम : यह संसार और संसार के कर्म मोहरूप हैं, इसमें पड़े हुए शान्ति नहीं पाते
५) श्रीराम : जैसे कमलपत्र पर जल की बूँद नहीं ठहरती वैसे ही आयु भी क्षणभंगुर है
६) श्रीराम: जब अज्ञान रूपी मेघ गर्जता है तब लोभरूपी मोर प्रसन्न होकर नृत्य करता है । जब अज्ञानरूपी मेघ वर्षा करता है तब दुःखरूपी मञ्जरी बढ़ने लगती है, लोभरूपी बिजली क्षण-क्षण में उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है और तृष्णारूपी जाल में फँसे हुए जीवरूपी पक्षी पड़े दुःख पाते हैं-शान्ति को प्राप्ति नहीं होती
७) श्रीराम : मन में जो मनरूपी सत्ता है वह युक्ति से दूर होती है, अन्यथा दूर नहीं होती
८) नारद : जितने मनुष्य हैं वे सब पशु से दृष्टि आते हैं, क्योंकि जिसको संसार समुद्र के पार होने की इच्छा है और जो पुरुषार्थ पर यत्न करता है वही मनुष्य है । हे साधो ! वृक्ष तो बहुत होते हैं परन्तु चन्दन का वृक्ष कोई होता है वैसे ही शरीरधारी बहुत हैं परन्तु ऐसा विद्वान् कोई बिरला ही होता है और सब अस्थि माँस रुधिर के पुतले से मिले हुए भटकते फिरते हैं
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