ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग ८- ९ सारांश दिवस ८
१) वसिष्ठ : यह चित्त जो संसार के भोग की ओर जाता है उस भोगरूपी खाईं में चित्त को गिरने मत दो.
२) वसिष्ठ : प्रथम शम और दम को धारण करो सम्पूर्ण संसार की वासना त्याग करके उदारता से तृप्त रहने का नाम शम है और बाह्य इन्द्रियों के वश करने को दम कहते हैं.
३) वसिष्ठ : जो श्रेष्ठ पुरुष हैं सो अपने वैराग्य और अभ्यास के बल से संसारबन्धन से मुक्त हो जाते हैं । जैसे हस्ती बन्धन को तोड़के अपने बल से निकल जाता है और सुखी होता है वैसे ही वैराग्य अभ्यास के बल से बन्धन से ज्ञानी मुक्त होते हैं
४) वसिष्ठ : जैसे वर्षाकाल में बहुत वर्षा के होने से वनको दावानल नहीं जला सकता वैसे ही ज्ञानी को आध्यात्मिक , आधिदैविक और आधिभौतिक ताप कष्ट नहीं दे सकते
५) वसिष्ठ : श्रेष्ठ पुरुष वही है जो संसार को विरस जानकर केवल आत्मतत्त्व की इच्छा करके परायण हो
६) वसिष्ठ : जिसको भोग की इच्छा है और संसार की ओर यत्न करता है सो पशुवत् है
७) वसिष्ठ : प्रश्न उससे कीजिये जिससे जानिये कि यह प्रश्न के उत्तर देने में समर्थ है और जिसको उत्तर देने की सामर्थ्य न हो उससे कदाचित् प्रश्न न करना । उत्तर देने को समर्थ हो और उसके वचन में भावना न हो तब भी प्रश्न न करे, क्योंकि दम्भ से प्रश्न करने में पाप होता है
८) वसिष्ठ : प्रथम जो अज्ञानी जीव में असत्य बुद्धि है उसका संग त्याग करो और मोक्षद्वार के चारों द्वारपालों से मित्र भावना करो. उन द्वारपालों के नाम सुनो शम, सन्तोष, विचार और सत्संग यह चारों द्वारपाल हैं .
९) वसिष्ठ : जिन पुरुषों ने शम, सन्तोष, विचार और सत्संग इससे स्नेह किया है सो सुखी हुए हैं और जिसने इनका त्याग किया है सो दुःखी हैं
१०) वसिष्ठ : सत्संग और सत्शास्त्रों द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करने से शीघ्र ही आत्मतत्व में प्रवेश होता है
११) वसिष्ठ : जिसने आत्मिक बल (विचार) द्वारा आत्मपद प्राप्त किया है वह अकृत्रिम आनन्द से सदा पूर्ण है और सब जगत् उसको आनन्द रूप भासता है
१२) वसिष्ठ : जिसने सत्संग और सत्शास्त्रों का विचार त्यागा है और संसार के सम्मुख है उसको अनर्थरूप संसार दुःख देता है
१३) वसिष्ठ : अज्ञानी को संसार दुःखरूप है और ज्ञानी को सब जगत् आनन्दरूप है
१४) वसिष्ठ : आत्मज्ञान् की प्राप्ति होने से सब दुःख नष्ट हो जाते हैं
१५) वसिष्ठ : अज्ञानी को कभी शान्ति नहीं होती; वह जो कुछ क्रिया करता है उसमें दुःख पाता है
१६) वसिष्ठ : संसार के क्षणमात्र के भोगों को त्याग करो । क्योंकि विषय के परिणाम में अनन्त दुःख हैं और हमसे ज्ञानवानों का संग करो
१७) वसिष्ठ : जिस पुरुष ने परमार्थ मार्ग को त्याग दिया है और संसार के खान पान आदि भोगों में मग्न हुआ है उसको तुम मेंढक जानों, जो कीच में पड़ा शब्द करता है
१८) वसिष्ठ : जो संसार के पदार्थों में सुख मानते हैं वे सुख बिजली की चमक से हैं जो होके मिट जाते हैं--स्थिर नहीं रहते
१९) वसिष्ठ : यह संसार मन के संसरने से उपजा है
२०) वसिष्ठ : जीव का कल्याण बान्धव, धन, प्रजा, तीर्थ देव द्वारा और ऐश्वर्य से नहीं होता, केवल एक मन के जीतने से कल्याण होता है
Ganesh K Avasthi
Blog Admin
पातंजल योगदर्शन : अध्याय १ - २ - ३ - ४ : समाधिपाद - साधनपाद - विभूतीपाद - कैवल्यपाद सारांश लेखन लिंक
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