ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग ८- ९ सारांश दिवस ७

ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग ८- ९ सारांश दिवस ७

 

योगवासिष्ठ


ग्रंथपरिचय योगवासिष्ठ महारामायणम् मुमुक्षु प्रकरण सर्ग ८-९ सारांश दिवस ७ 

१) वसिष्ठ : यह जो शब्द है कि "दैव हमारी रक्षा करेगा" सो किसी मूर्ख की कल्पना है 

२) वसिष्ठ : मूर्ख लोग दैव दैव कहते हैं, पर दैव कहते हैं, पर दैव कोई नहीं है, इसका पूर्व का कर्म ही दैव है

३) वसिष्ठ : जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है और देवपरायण हुआ है कि वह हमारा कल्याण करेगा वह मूर्ख है, क्योंकि अग्नि में जा पड़े और दैव निकाल ले तब जानिये कि कोई दैव भी है, पर सो तो नहीं होता

४) वसिष्ठ : स्नान, दान, भोजन आदिक त्याग करके चुप हो बैठे और आप ही दैव कर जावे सो भी किये बिना नहीं होता इससे दैव कोई नहीं, अपना पुरुषार्थ ही कल्याणकर्ता है 

५) वसिष्ठ : जीव का किया कुछ नहीं होता और दैव ही करने वाला होता तो शास्त्र और गुरु का उपदेश भी न होता

६) वसिष्ठ :  भ्रम को त्याग करके सन्तों और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ करे तब दुःख से मुक्त होगा 

७) वसिष्ठ : दैव कोई नहीं है केवल अपना पुरुषार्थ ही दैवरूप है

८) वसिष्ठ : जो अज्ञानी से ज्ञानवान् होते हैं सो भी अपने पुरुषार्थ से ही होते हैं ।

९) वसिष्ठ :  मिथ्या भ्रम को त्यागकर सन्त जनों और सत्‌शास्त्रों के अनुसार संसारसमुद्र तरने का प्रयत्न करो

१०) वसिष्ठ : अपने ही किये हुए शुभ अथवा अशुभकर्म का फल अवश्यमेव भोगना होता है, उसे दैव कहो वा पुरुषार्थ कहो और दैव कोई नहीं

११) वसिष्ठ : कर्त्ता, क्रिया, कर्म आदिक में तो दैव कोई नहीं और न कोई दैव का स्थान ही है

१२) वसिष्ठ :  दैव नाम अपने पुरुषार्थ का है, पुरुषार्थ कर्म का नाम है और कर्म नाम वासना का है । वासना मन से होती है और मनरूपी पुरुष जिसकी वासना करता है सोई उसको प्राप्त होती है । जो गाँव के प्राप्त होने की वासना करता है सो गाँव को प्राप्त होता है और जो घाट की वासना करता सो घाट को प्राप्त होता है 

१३) वसिष्ठ : पूर्व का जो शुभ अथवा अशुभ दृढ़ पुरुषार्थ किया है उसका परिणाम सुख दुःख अवश्य होता है और उसी का नाम दैव है 

१४) वसिष्ठ : जीव जो पाप की वासना और शास्त्रविरुद्ध कर्म करता है सो क्यों करता है ? पूर्व के दृढ़ पुरुषार्थ कर्म से ही पाप करता है । जो पूर्व का पुण्यकर्म किया होता तो शुभमार्ग में विचरता 

१५) वसिष्ठ : जो कुछ पूर्व की वासना दृढ़ हो रही है उसके अनुसार जीव विचरता है पर जो श्रेष्ठ मनुष्य है सो अपने पुरुषार्थ से पूर्व के मलिन संस्कारों को शुद्ध करता है तो उसके मल दूर हो जाते हैं 

१६) वसिष्ठ : जब तुम सत्‌शास्त्रों और ज्ञानवानों के वचनों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करोगे तब मलिन वासना दूर हो जावेगी 

१७) वसिष्ठ : जो चित्त विषय और शास्त्र विरुद्ध मार्ग की ओर जावे और शुभ की ओर न जावे तो जानिये कि कोई पूर्व का कर्म मलीन है ! जो सन्तजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार चेष्टा करे और संसारमार्ग से विरक्त हो तो जानिये कि पूर्व का शुभकर्म है 

१८) वसिष्ठ : हे रामजी! तुम चैतन्य हो, जड़ तो नहीं हो, अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो 

१९) वसिष्ठ : श्रेष्ठ पुरुष भी वही है जिसका पूर्व का संस्कार यद्यपि मलीन भी था, परन्तु संतों और सत्‌शास्त्रों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करके सिद्धता को प्राप्त हुआ है और मूर्ख जीव वह है जिसने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है जिससे संसार से मुक्त नहीं होता 

२०) वसिष्ठ : जो श्रेष्ठ पुरुष है उसको यह करना चाहिए कि प्रथम तो पाँचों इन्द्रियों को वश करे फिर शास्त्र के अनुसार उनको बर्त्तावे और शुभ वासना दृढ़ करे, अशुभ का त्याग करे 

२१) वसिष्ठ : यद्यपि त्यागनीय दोनों वासना हैं पर प्रथम शुभ वासना को इकट्ठी करे फिर अशुभ त्याग करे 


Ganesh K Avasthi 
Blog Admin


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