क्या में मानव हु ?
क्या में मानव हु ?
ये सवाल मेरे दिल - दिमाग को झंझोड़कर रख देता है !
मुझे नहीं दीखता कोई भी अंतर मुझमे और पशु में !
हालाँकि मुझे तो पशु भी मुझसे ज्यादा मानव नजर आता है !
मैंने आजतक किसी पशु को अपने प्राकृतिक मर्यादाओं को लांघते नही देखा !
जब की में हर पल हर मनुष्य को अपनी मर्यादाओं को लांघकर प्रकृती के हर अंग का शोषण करते देख रहा हु !
शायद मनुष्य के इस पशुता को देखकर पशु भी अपने पशु होने पर गर्व महसूस करता होगा !
जिस धर्म - विज्ञानं - शिक्षा के वजह से में मानव खुदको पशु से उन्नत मानकर अपने अहंकार का पोषण करता हुवा
उसी धर्म - विज्ञानं - शिक्षा को आधार बनाकर हर पल हर किसी न किसी का शोषण कर रहा हु !
पशु मुझे बिना धर्म - विज्ञानं - शिक्षा के भी मुझसे ज्यादा उची चेतना के प्रतीत होते है !
में सोचता हु की वह क्या है जो मुझ मानव को एक पशु से अलग बनाता है ?
भोग - भोजन - उपभोग - मैथुन - निद्रा के चक्र में पशु मुझसे कही भी अलग प्रतीत नही होता !
हा एक तर्क दिया जा सकता है की मेंने भोग - भोजन - उपभोग - मैथुन - निद्रा के लिए पशु से उन्नत साधना इकट्ठा किये है !
लेकिन क्या इन्ही उन्नत साधनों की जमावट की होड़ में लगकर में पशुसे अधिक पशु नहीं बन गया हु ?
इसी साधनों को में सबके शोषण का आधार नहीं बना रहा हु ?
क्या यही सारे साधन मेरे अधिक उन्नत मानव होने के प्रमाण है ?
क्या इन्ही साधनों की अधिक से अधिक जमावट को प्रमाण मानकर तथाकथित यश - अपयश की परिभाषा को मानव तथाकथीत सभ्य समाज में प्रस्तुत नही किया गया है ?
मुझे नही लगता की में भोग - भोजन - उपभोग - मैथुन - निद्रा के इन उन्नत साधनों की जमावट कर पशु से अलग बन गया हु !
मुझे तो लगता है की में दंभ और पाखंड के शिखर पे बैठकर खुदको पशु से भिन्न हु यह साबित करने में ही अपनी उर्जा लगा कर खुदके चेतना की निम्न स्तर पे पहोच चूका हु !
पशु से अलग हु यह दिल को जताने - बहलाने - फुसलाने के लिए इतना कह सकता हु की प्रगत पशु बन गया हु जो प्रगत साधनों के इस्तेमाल से मानवता की और जाने के बजाय पशुता के भी निम्न स्तर को पीछे छोड़ने की होड़ में हर पल व्यतीत कर रहा हु वह भी इस अहंकार के पोषण के साथ की में मानव हु !
क्या में मानव हु ? ये सवाल मेरे दिल - दिमाग को झंझोड़कर रख देता है !
मुझे नहीं दीखता कोई भी अंतर मुझमे और पशु में !
हालाँकि मुझे तो पशु भी मुझसे ज्यादा मानव नजर आता है !
मैंने आजतक किसी पशु को अपने प्राकृतिक मर्यादाओं को लांघते नही देखा !
जब की में हर पल हर मनुष्य को अपनी मर्यादाओं को लांघकर प्रकृती के हर अंग का शोषण करते देख रहा हु !
शायद मनुष्य के इस पशुता को देखकर पशु भी अपने पशु होने पर गर्व महसूस करता होगा !
जिस धर्म - विज्ञानं - शिक्षा के वजह से में मानव खुदको पशु से उन्नत मानकर अपने अहंकार का पोषण करता हुवा
उसी धर्म - विज्ञानं - शिक्षा को आधार बनाकर हर पल हर किसी न किसी का शोषण कर रहा हु !
पशु मुझे बिना धर्म - विज्ञानं - शिक्षा के भी मुझसे ज्यादा उची चेतना के प्रतीत होते है !
में सोचता हु की वह क्या है जो मुझ मानव को एक पशु से अलग बनाता है ?
भोग - भोजन - उपभोग - मैथुन - निद्रा के चक्र में पशु मुझसे कही भी अलग प्रतीत नही होता !
हा एक तर्क दिया जा सकता है की मेंने भोग - भोजन - उपभोग - मैथुन - निद्रा के लिए पशु से उन्नत साधना इकट्ठा किये है !
लेकिन क्या इन्ही उन्नत साधनों की जमावट की होड़ में लगकर में पशुसे अधिक पशु नहीं बन गया हु ?
इसी साधनों को में सबके शोषण का आधार नहीं बना रहा हु ?
क्या यही सारे साधन मेरे अधिक उन्नत मानव होने के प्रमाण है ?
क्या इन्ही साधनों की अधिक से अधिक जमावट को प्रमाण मानकर तथाकथित यश - अपयश की परिभाषा को मानव तथाकथीत सभ्य समाज में प्रस्तुत नही किया गया है ?
मुझे नही लगता की में भोग - भोजन - उपभोग - मैथुन - निद्रा के इन उन्नत साधनों की जमावट कर पशु से अलग बन गया हु !
मुझे तो लगता है की में दंभ और पाखंड के शिखर पे बैठकर खुदको पशु से भिन्न हु यह साबित करने में ही अपनी उर्जा लगा कर खुदके चेतना की निम्न स्तर पे पहोच चूका हु !
पशु से अलग हु यह दिल को जताने - बहलाने - फुसलाने के लिए इतना कह सकता हु की प्रगत पशु बन गया हु जो प्रगत साधनों के इस्तेमाल से मानवता की और जाने के बजाय पशुता के भी निम्न स्तर को पीछे छोड़ने की होड़ में हर पल व्यतीत कर रहा हु वह भी इस अहंकार के पोषण के साथ की में मानव हु !
क्या में मानव हु ? ये सवाल मेरे दिल - दिमाग को झंझोड़कर रख देता है !
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